समाज की संवेदनशीलता से ही कम होगा ऑटिज्म का प्रभाव
सेहतराग टीम
दो अप्रैल को पूरी दुनिया में ऑटिज्म जागरूकता दिवस मनाया जाता है। ऑटिज्म यानी बच्चों में व्यवहार संबंधी बीमारी जो उन्हें सामाजिक मेल-मिलाप से रोकती है और उनकी जिंदगी को मुश्किल बनाती है। मगर डॉक्टरों का मानना है कि यदि समाज संवेदनशील हो तो इस बीमारी के असर को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। दूसरी बात, नए तरीकों से अब बहुत ही कम उम्र में यह पता चल सकता है कि कोई बच्चा ऑटिज्म से पीड़ित तो नहीं है और ऐसे में माता-पिता 2-3 वर्ष की उम्र में ही अपने बच्चों का इलाज शुरू करवा सकते हैं और इससे भी बच्चों को बेहद लाभ हो सकता है।
कई तरह की होती है बीमारी
ऑटिज्म या ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर कई प्रकार के होते हैं। इसमें सामाजिक तालमेल से लेकर बोलने में आने वाली दिक्कतों, दोहराव वाले व्यवहार सहित विलक्षण शक्तियों सहित कई चीजें शामिल हैं। ऑटिज्म पर्यावरण के प्रभाव और आनुवांशिक कारकों के मेल से होता है।
गाजियाबाद के होम्योपैथी चिकित्सक डॉक्टर बलबीर कसाना सेहतराग से बातचीत में कहते हैं कि यह बीमारी पूरी तरह बच्चों के असामान्य व्यवहार से जुड़ी है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बच्चा परिजनों या आसपास वालों के लगातार बातचीत के प्रयास के बावजूद उसमें दिलचस्पी नहीं ले रहा है तो ये ऑटिज्म का लक्षण हो सकता है। ऐसे में माता-पिता को तत्काल किसी अच्छे चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए।
वर्तमान समय में पारंपरिक ऑटिज्म के अलावा अब इस बीमारी का एक नया प्रकार भी सामने आया है जिसे वर्चुअल ऑटिज्म नाम दिया गया है। दरअसल इस सिंड्रोम से वैसे बच्चे ग्रस्त होते हैं जो किसी न किसी स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताते हैं। मोबाइल, लैपटॉप या टीवी का स्क्रीन इन बच्चों के दिमाग को बुरी तरह प्रभावित करता है।
सेहतराग में कुछ दिनों पहले हमने ऑटिज्म की पहचान से जुड़ी एक स्टोरी प्रकाशित की थी। तब हमने बताया था कि ऑटिज्म बच्चों में व्यवहार संबंधी वह बीमारी है जो बच्चों के सामाजिक मेलमिलाप को प्रभावित करता है और उसकी सामाजिक जिंदगी को सही से विकसित नहीं होने देता। आमतौर पर इस बीमारी का पता कम उम्र में नहीं लग पाता जिसके कारण माता-पिता समय रहते बच्चों को सही इलाज नहीं दिला पाते और उम्र बढ़ने के साथ इसके ठीक होने की उम्मीद धूमिल होने लगती है। इस बीमारी को आटिज्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर’ यानी एएसडी कहा जाता है।
नई खोज
अब वैज्ञानिकों ने बच्चों में आटिज्म का पता लगा सकने वाले नए रक्त और मूत्र परीक्षण की पद्धति तलाश ली है जिससे बेहद कम उम्र में इस बीमारी का पता चल पाएगा और उनका इलाज भी जल्द शुरू हो पाएगा। ब्रिटेन के वारविक विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अपनी तरह के इस पहली जांच प्रणाली तैयार की है। वैज्ञानिकों का दावा है कि उनकी इस खोज से इसका काफी पहले पता लगाया जा सकता है और इसका इलाज शुरू हो सकता है।
कैसे काम करता है
इन वैज्ञानिकों ने ऑटिज्म पीड़ित बच्चों के रक्त प्लाजा में मौजूद प्रोटीन का अध्ययन करने पर पाया कि ऐसे बच्चों में ऑक्सीडेशन मार्कर डिटायरोसाइन (डीटी) का स्तर सामान्य से बहुत अधिक होता है। इसके अलावा कुछ चुनिंदा शुगर मोडिफाइड कंपाउंड्स जिन्हें एड्वांस्ड ग्लाइकेशन एंड प्रोडक्ट्स (एजीइस) कहते हैं, उसका स्तर भी ज्यादा होता है। नई जांच में इन्हीं दोनों चीजों का पता लगाकर यह पाया जाता है कि बच्चे को ऑटिज्म है या नहीं।
बच्चों पर बीमारी का कैसा असर
एएसडी मरीज के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करता है और इसके लक्षणों में बोली का लड़खड़ाना, एक जैसी हरकत बार-बार दोहराना, अतिसक्रियता दिखाना, भयभीत होना और नए माहौल में ढलने में मुश्किल आना शामिल हैं। बीमारी के शुरुआती चरण में इसके लक्षण अलग-अलग तरह के हो सकते हैं और इसी लिए तब इसका पता लगाना भी मुश्किल होता है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस खोज को मील का पत्थर माना जा रहा है क्योंकि इसके जरिये अब बहुत ही छोटे बच्चों में ऑटिज्म का पता चल जाएगा और उनका उसी के अनुरूप इलाज शुरू किया जा सकेगा।
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